Tuesday, March 6, 2012

जीवन क्या है?

आप फूल क्यों तोडते हैं? पौधों को क्यों विदीर्ण करते हैं? क्यों आप फर्नीचर नष्ट करते हैं या कोई कागज इधर-उधर फेंक देते हैं? मुझे मालूम है आपको ऐसा न करने के लिए कई बार कहा गया होगा। लेकिन आप यह सब करते हैं। गलतियों को दोहराते हैं। लेकिन ऐसा करते समय आप अविचारशीलताकी अवस्था में होते हैं? ये कार्यकलाप आप इसलिए करते हैं, क्योंकि आप उस वक्त विचारशीलऔर जाग्रत नहीं हैं। आप ऐसा करते हैं, क्योंकि आप असावधान हैं। आप सोचते ही नहीं हैं। आपका मन तंद्रा में रहता है। आप पूर्णत:सजग नहीं हैं। वहां होकर भी स्वयं उस स्थान पर उपस्थित नहीं हैं। ऐसी अवस्था में आपको मना करने का कोई भी मतलब नहीं होगा। आप उसे ग्रहण कर ही नहीं पाएंगे। लेकिन यदि मना करने वाले आपको विचारशीलहोने में, सही अर्र्थोमें सजग होने में, वृक्षों, पक्षियों, सरिता और वसुधा के अद्भुत ऐश्वर्य का आनंद लेने में आपकी सहायता कर सकें, तब आपके लिए एक छोटा-सा इशारा भी काफी होगा। तब आपके भीतर संवेदनशीलता विकसित हो चुकी होगी। तब आप प्रत्येक वस्तु के प्रति संवेदनशील और सचेत होंगे।
लेकिन यह दुर्भाग्य का विषय है कि यह करें, यह नहीं करें कहकर आपकी संवेदनशीलता ही नष्ट कर दी जाती है। आपके माता-पिता, शिक्षक, समाज, धर्म, पादरी,आपकी खुद की महत्वाकाक्षाएं,आपका लालच व ईष्र्याएं, ये सभी आपको कहते रहते हैं - आप यह करें, यह न करें। आप इन करने और न करने से मुक्त हों। साथ ही संवेदनशील भी हों, ताकि आप सहज दयालु बन सकें। किसी को चोट न पहुंचाएं। इधर-उधर कागज न फेंके। राह का पत्थर बिना हटाए आगे न बढें। इन सारी बातों के लिए अंकुश की आवश्यकता नहीं, विचारशीलताकी जरूरत होती है।

..................................................................................

जब दास प्रथा का चलन था। तब इंसान को खुलेआम खरीदा - बेचा जाता था। उनके बड़े - बड़े बाजार लगते थे। उनके साथ जानवरों जैसा सलूक किया जाता था। किसी देश में एक जागीरदार के पास अनेक दास थे जिनसे वह बड़ा ही क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता था। न ही उन्हें पेट भर खाना देता था , न ही आराम करने देता था। ऊपर से जब - तब कोड़ों से मारता भी था। जागीरदार ने दासों की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को रख लिया।

वह व्यक्ति स्वभाव से बड़ा ही नरम , दयालु और मेहनती था। वह गुलामों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करता था। वह उन्हें समय पर खाना देता और आराम करने के पर्याप्त मौके भी उपलब्ध कराता था। एक दिन जागीरदार ने उस व्यक्ति से कहा - जाओ , खेतों में गेहूं बो कर आओ। जब वह खेतों में बुवाई करके लौटा तो जागीरदार ने उससे पूछा - क्या ठीक से गेहूं बो कर आ गए ? इस पर उस व्यक्ति ने कहा - जी हां। बहुत अच्छे ढंग से बोया है। जौ की बड़ी अच्छी फसल आएगी। इस पर जागीरदार हैरत में पड़ गया।

उसने उससे गुस्से में कहा - क्या बक रहे हो ? मुझे नहीं पता था कि तू इतना बड़ा बेवकूफ निकलेगा। मैंने तुम्हें गेहूं बोने के लिए भेजा था। अगर तुमने गेहूं बोए हैं तो जौ की फसल भला क्यों आएगी ? इस पर उस व्यक्ति ने कहा - ठीक कह रहे हैं आप। जब मैंने गेहूं बोये हैं तो जौ की फसल क्यों आएगी ? आदमी जो बोता है , वही काटता है। जैसे आप इन गुलामों के साथ बेहद क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं फिर भी आप चाहते हैं कि आपके जीवन में खुशी और समृद्धि आए। ऐसा कैसे हो सकता है भला। दूसरों को दुख - तकलीफ पहुंचाकर कोई भी कभी संतुष्ट नहीं रह सकता। जागीरदार को यह बात समझ में आ गई। वह उस दिन से गुलामों के साथ अच्छा व्यवहार करने लगा।

........................................................................................
भगवान कृष्ण को देवकी ने जन्म दिया था, लेकिन उन्हें पाल-पोस कर बडा किया यशोदा मां ने। माना जाता है कि जन्म देने वाले से पालने वाला बडा होता है।
यशोदा ने श्रीकृष्ण को जन्म नहीं दिया था। पालन-पोषण किया था। उन्हें संस्कार देने का पूरा प्रयत्न किया था। मां से भी बढकर। यह उनका क‌र्त्तव्य था। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि जन्म देने से ज्यादा महत्व पालने वाले का होता है। जन्म देने वाली मां जननी हो सकती है, लेकिन चुनौतियों से जूझने की शक्ति वही मातृ-शक्ति दे सकती है, जो बच्चे में संस्कार भरे।
यशोदा जी को नहीं मालूम था कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु का अवतार हैं, इसलिए उन्होंने बालक कृष्ण के साथ वैसा ही व्यवहार किया, जैसे एक ममतामयीमां करती है। उन्हें प्यार से दुलराया,पालने में झुलाया, ठुमक-ठुमक कर चलते हुए देखकर खुश हुई, तो उद्दंडता करने पर उनसे स्पष्टीकरण मांगा और दोषी मानकर उन्हें दंड भी दिया। कृष्ण के घर आने से उनके यहां उत्सव जैसा माहौल हो गया था। यदि उन्हें श्रीकृष्ण के ईश्वर होने का पता भी होता, तब भी वे श्रीकृष्ण को अपना कान्हाही समझतीं। क्योंकि यशोदा श्रीकृष्ण को पाकर वात्सल्य का झरना बन चुकी थीं। उन्होंने सिर्फ श्रीकृष्ण का ही लालन-पालन नहीं किया, बल्कि रोहिणी के पुत्र बलराम को भी मां की ममता और परवरिश दी।
धार्मिक ग्रंथों और भक्तिकालीनकवियों द्वारा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का इतना सजीव चित्रण बिना यशोदा के वात्सल्य भाव के संभव नहीं था। माता यशोदा के यहां रहकर ही श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में कंस के भेजे हुए राक्षसों का वध कर दिया। यशोदा को हमेशा लगता रहा कि यह बालक विशिष्ट तो है, लेकिन उनका हृदय उन्हें अबोध बालक के रूप में ही स्वीकार करता रहा। यह मां का हृदय था, जो अपनी संतान को हर विपत्ति से बचाने को तत्पर रहता है। पूतना,शकटासुर,धेनुकजैसे असुरों के वध के बावजूद यशोदा श्रीकृष्ण को अबोध बालक ही अनुभव करती रहीं।
उन्होंने श्रीकृष्ण के कार्यकलापों पर पूरा ध्यान रखा। उन्हें गोप और बलराम से पता चला कि बालक कृष्ण ने मिट्टी खाई है, तो वे चिंतामग्न हो गईं। तुरंत कृष्ण से कहा- मुंह खोलो। यह बात दूसरी है कि कृष्ण के मुंह में यशोदा को मिट्टी की जगह पूरा ब्रह्मांड दिखा। इसी तरह गोपिकाओं की माखन चुरा कर खाने की शिकायत मिलने पर भी मां यशोदा ने कृष्ण से सवाल-जवाब किए। दोषी पाए जाने पर दंड दिया। उन्हें ओखली से बांध दिया। लेकिन कृष्ण के तर्र्कोके आगे आखिरकार यशोदा हर बार वात्सल्य की नदी बन जातीं। कृष्ण के मथुरा जाने के बाद वे देवकी को संदेश भिजवाती हैं कि कृष्ण को तो सुबह माखन-रोटी खाने की आदत है। प्रसंग आता है कि बचपन में बलराम कृष्ण को चिढाते हैं कि तू यशोदा का पुत्र नहीं है। उन्होंने तुम्हें मोल लिया है। इससे कृष्ण यशोदा से प्रश्न करते हैं कि मेरी मां कौन है? इस पर मां यशोदा अपना पूरा प्यार कृष्ण पर लुटा देती हैं और कहती हैं -मै ही तेरी मां हूं और तू मेरा ही पुत्र है। यशोदा ने भले ही सच न बोला हो, लेकिन झूठ भी नहीं बोला था। क्योंकि मां वही होती है, जो प्यार देने के साथ-साथ बच्चे को गलत मार्ग की ओर जाने पर दंडित भी करे। यशोदा जी हैं पालनहार।

.............................................................................
जीवन क्या है? खेल, आनंद, पहेली या बस.. सांसों की डोर थामे उम्र के सफर पर बढ़ते जाना? ये साधना है या यातना? सुख है या उलझाव? जीवन का अर्थ कोई भी, पूरी तरह, कभी समझ नहीं पाया है, लेकिन इसकी अनगिनत परिभाषाएं सामने आती रही हैं। हम अलग अलग समय में ज़िंदगी के मूल्यों को परखते रहते हैं, उनका अर्थ तलाशने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। हालांकि एक बात आपने कभी गौर की है कि ज़िंदगी को परखने की कोशिश में हम एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं। वह ये है कि जीवन की विशिष्ट परिभाषाएं दरअसल, हमारे सामान्य होने में छुपी हैं। इनमें से ही एक अहम बात है प्रकृति से हमारा जुड़ाव। कुदरत का मतलब मिट्टी, पानी, पहाड़, झरने तो हैं ही, पांचों तत्व भी तो प्रकृति से ही मिले हैं। हमारी देह में, हमारे दुनियावी वजूद में शामिल पंच तत्व। और फिर, दुनिया में अगर हम मौजूद हैं तो प्रकृति की नियामतों के बिना कैसे जिएंगे? क्या सांस न लेंगे? तरहतरह के फूलों की खुशबुओं से मुलाकात न करेंगे? भोजन और पानी के बगैर कैसे गुजरेगी जीवन की रेलगाड़ी? तो आइए, आज प्रकृति के संग-संग ही तलाशते हैं अपनी ज़िंदगी का अर्थ! कुदरत महज हमारे जन्म और जीने के लिए ही जरूरी नहीं है। यह कल्पना भी सिहरा देने वाली होगी कि हमारे आसपास प्राणतत्व की उपस्थिति न होगी। सोचकर देखिएगा कि आप किसी ऐसी जगह मौजूद हों, जहां सबकुछ अदृश्य हो। आपके पैरों तले मिट्टी न हो, आंख के सामने न हों, पीने के लिए पानी और बातें करने के लिए परिंदे न हों.. क्या वहां जीवन संभव हो सकेगा? खैर, अस्तित्व से आगे निकलकर इससे भी विराट संदर्भो में अर्थ तलाशें तो हम पाएंगे कि जन्म से लेकर जीवन और फिर नश्वर संसार से अलविदा कहने तक प्रकृति हमारे साथ अलग-अलग रूपों में अपनी पूर्ण सकारात्मकता समेत मौजूद है।


पहाड़ की छाती चीरकर झरने पानी लेकर हाजिर हैं। उनकी सौगात आगे बढ़ाती हैं नदियां और फिर सागर में मिल जाती हैं। समंदरों से यही पानी सूरज तक पहुंचता है और होती है बारिश। बारिश न हो तो खेत कैसे लहलहाएंगे? हां, खुशबुएं न हों, रास्ते न हों, जंगलों का नामओनिशां न हो तो हमारे होने का, इस जीवन का ही क्या मतलब होगा?

प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचयिता के श्रंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव। मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भीगना, गर्मी में छांव और बारिश की उमंग तो अनिर्वचनीय ही है। सब के सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं। सच कहें तो प्रकृति में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। जरूरत बस इस बात की है कि हम कुदरत की स्वाभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें, सराहें और पहचानें। स्वाभाविक तौर पर हर दिन बिना कोई विलंब किए उगने वाले सूरज को, बगैर थके उसकी परिक्रमा करने वाली पृथ्वी को और उसके पारस्परिक संबंध के कारण होने वाले बदलावों को समझ पाएंगे। हम जान पाएंगे कि बिना कुछ लिए महज फल और छाया देते हैं। नदियां कुछ भी नहीं कहतीं, पर पानी की सौगात देती हैं। मौसम अपने रंग बिना किसी कीमत के बिखेरते हैं।



हम जब तक प्रकृति की ओर से मिल रही सीख समझते हैं और उसे आहत नहीं करते, उसकी तरफ से आनंद की वर्षा होती है। हम उसमें भीगते रहते हैं, लेकिन जब जब हम कारसाज कुदरत को ह्रश्वयार करना बंद कर देते हैं, कई तरह की सुनामियों का सामना भी करना पड़ता है। अच्छा हो, अगर हम प्रकृति का सम्मान करना सीख लें और उसके जरिए मानव-मात्र की होने वाली सेवा से जरूरी संदेश ग्रहण कर लें। ऐसा हो सका तो यकीनन, हमारी आंखों में आशा, संतोष, उम्मीद और खुशी के कई दीये जल उठेंगे।

.................................................................................
जब फ्रांस में विद्रोही काफी उत्पात मचा रहे थे। सरकार अपने तरीकों से विद्रोहियों से निपटने में जुटी हुई थी। काफी हद तक सेना ने विद्रोह को कुचल दिया था , फिर भी कुछ शहरों में स्थिति खराब थी। इन्हीं में से एक शहर था लिथोस। लिथोस में विद्रोह पूर्णतया दबाया नहीं जा सका था , लिहाजा जनरल कास्तलेन जैसे कड़े अफसर को वहां नियंत्रण के लिए भेजा गया। कास्तलेन विद्रोहियों के साथ काफी सख्ती से पेश आते थे।

इसलिए विद्रोहियों के बीच उनका खौफ भी था और वे उनसे चिढ़ते भी थे। इन्हीं विद्रोहियों में एक नाई भी था , जो प्राय : कहता फिरता - जनरल मेरे सामने आ जाए तो मैं उस्तरे से उसका सफाया कर दूं। जब कास्तलेन ने यह बात सुनी तो वह अकेले ही एक दिन उसकी दुकान पर पहुंच गया और उसे अपनी हजामत बनाने के लिए कहा। वह नाई जनरल को पहचानता था। उसे अपनी दुकान पर देखकर वह बुरी तरह घबरा गया और कांपते हाथों से उस्तरा उठाकर जैसे - तैसे उसकी हजामत बनाई।

काम हो जाने के बाद जनरल कास्तलेन ने उसे पैसे दिए और कहा - मैंने तुम्हें अपना गला काटने का पूरा मौका दिया। तुम्हारे हाथ में उस्तरा था , मगर तुम उसका फायदा नहीं उठा सके। इस पर नाई ने कहा - ऐसा करके मैं अपने पेशे के साथ धोखा नहीं कर सकता था। मेरा उस्तरा किसी की हजामत बनाने के लिए है किसी की जान लेने के लिए नहीं। वैसे मैं आपसे निपट लूंगा जब आप हथियारबंद होंगे। लेकिन अभी आप मेरे ग्राहक हैं। कास्तलेन मुंह लटकाकर चला गया।

..................................................................................
वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना का निधन भारतीय मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविंद खुराना का मेसाचुसेट्स के कोनकोर्ड में 9 नवम्बर , 2011 को निधन हो गया। वह 89 वर्ष के थे। डॉ. हरगोविंद खुराना को चिकित्सा (शरीर क्रिया विज्ञान) क्षेत्र में वर्ष 1968 का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। आरएनए के न्यूक्लियोटाइड सीक्वेंस को सुलझाने और जेनेटिक कोड को समझने के लिए उन्हें यह सम्मान दिया गया। डॉ. हरगोविंद खुराना का जन्म पाकिस्तान के पंजाब में छोटे से गांव रायपुर में 9 जनवरी, 1922 को हुआ।

...........................................................................
एक मजदूर बिल्कुल अकेला था। कभी आवश्यकता होती तो मजदूरी कर लेता तो कभी यूं ही रह जाता। एक बार उसके पास खाने को कुछ नहीं था। वह घर से मजदूरी ढूंढने के लिए निकल पड़ा। गर्मी का मौसम था और धूप बहुत तेज थी। उसे एक व्यक्ति दिखा जिसने एक भारी संदूक उठा रखा था। उसने उस व्यक्ति से पूछा- क्या आपको मजदूर चाहिए? उस व्यक्ति को मजदूर की आवश्यकता भी थी, इसलिए उसने संदूक मजदूर को उठाने के लिए दे दिया। संदूक को कंधे पर रखकर मजदूर चलने लगा। गरीबी के कारण उसके पैरों में जूते नहीं थे। सड़क की जलन से बचने के लिए कभी-कभी वह किसी पेड़ की छाया में थोड़ी देर खड़ा हो जाता था। पैर जलने से वह मन-ही-मन झुंझला उठा और उस व्यक्ति से बोला- ईश्वर भी कैसा अन्यायी है। हम गरीबों को जूते पहनने लायक पैसे भी नहीं दिए। मजदूर की बात सुनकर व्यक्ति खामोश रहा।

दोनों थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि तभी उन्हें एक ऐसा व्यक्ति दिखा जिसके पैर नहीं थे और वह जमीन पर घिसटते हुए चल रहा था। यह देखकर वह व्यक्ति मजदूर से बोला- तुम्हारे पास तो जूते नहीं है, परंतु इसके तो पैर ही नहीं है। जितना कष्ट तुम्हें हो रहा है, उससे कहीं अधिक कष्ट इस समय इस व्यक्ति को हो रहा होगा। तुमसे भी छोटे और दुखी लोग संसार में हैं। तुम्हें जूते चाहिए तो अधिक मेहनत करो। हिम्मत हार कर ईश्वर को दोष देने की जरूरत नहीं। ईश्वर ने नकद पैसे तो आज तक किसी को भी नहीं दिए, परंतु मौके सभी को बराबर दिए हैं। उस व्यक्ति की बातों का मजदूर पर गहरा असर हुआ। वह उस दिन से अपनी कमियों को दूर कर अपनी योग्यता व मेहनत के बल पर बेहतर जीवन जीने का प्रयास करने लगा।

No comments: