Wednesday, April 8, 2009
सच कहूँ ... घोर कलयुग आ गया है
वो गंगा । अब नही दिखती । जिसकी आवाज में मधुरता थी । चेहरा देखने के लिए आईने की जरुरत नही थी । जो हमारी प्यास भी बुझाती थी । आज गंदे नाले में बदल गई । उसका कोई दोष नही । वो तो अपने हालत पर रो रही है । उस दिन को याद कर रही है, जब भगीरथ ने धरती पर अवतरित किया । याचना कर रही है ...अब भी छोड़ दो । उसकी आवाज सुनने वाला कोई नही । सच कहूँ ... घोर कलयुग आ गया है ।
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2 comments:
उजाले को पी अपने को उर्जावान बना
भटके लोगो को सही रास्ता दीखा
उदास होकर तुझे जिंदगी को नही जीना
खुला गगन सबके लिए है , कभी मायूश न होना
तुम अच्छे हो, खुदा की इस बात को सदा याद रखना....
hi, mark !!
tumhara pryas bahut achchha hai .
tum is liye kyonki tum bachche ho .
upar likhi panktiyan mujhe behad pasand aain hain .
yahi baat tumhare upar bhi lagu hoti hai
ganga ki chinta ke liye dhanywad .
... भाव अच्छे हैं लेकिन प्रस्तुतिकरण मे सुधार की आवश्यकता जान पडती है ।
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